बहती नदियां बिना बांध के
“Drifting River without Dam”
(Hindi Poetry)
बहता दरिया है ये
बह जाने दे
मत डाल लंगड़
उखाड़ खूटियों को
निरबाँध बह जाने दे
मिट्टी के नीचे
रंग दबे हैं
खट्टे-मीठे
स्वाद दफन हैं
जब उगना हो
उग आते हैं अपने से
कौन रोक सका है उनको
मिट्टी ही तो है
पर कैसे इतनी
सतरंगी दुनिया बन जाती है
बून्द ही तो है,
दूर शितिज में
कैसे इंद्र-धनुष
बन जाती है
बहते पानी को
आईना बनाकर
कब किसने श्रंगार किया है
बहता ही रहता है जीवन
यूं ही बेपरवाही में
“तूराज़” समुन्द्र तो
मिल ही जायेगा
“तू” तो तिरता ही जा
इस बहते पानी में।
तूराज़…….✍️
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