कुदरत की आवाज़
(Voice of the Nature)
(Hindi Poetry)
मैं चुप हूं
एक मूक बधिर सी हूं
दया आती है मुझको उस पर
जिसको मैंने कोख में पाला
वही मुझे निर्वस्त्र करने लगा है
फिर भी मैं चुप हूं
क्योंकि मैं निर्लज्ज नहीं
ममता, दया, दान, धरम,
स्वभाव मेरा
सब मुझसे ही आता
जीवन में
फिर मुझमें ही जाता समा।
मैंने सहा भी है,और
देखा भी है मंझर
उन जख्मों का
जो रोज करता है
मानव मुझ पर,
पर मैं चुप हूं
एक मूक बधिर सी हूं
क्योंकि मैंने कोख में
पाला है उसको
श्रेष्ठ बनाया था उसको
सब जीवों में
कुछ भला, कुछ
मंगल करने को
सबका अच्छा हो,
संरक्षित भी हो और
संरक्षण भी जीवन का,
पर मैंने कुछ अद्भुत ही देखा
शस्त्र लिए वृक्ष पर चढ़ा वह
कालीदास सा बन बैठा है
अपने ही गले में छुरी लगाए
वह कसाई सा दिखता है।
करने चला है अपना भला
पर इस धरा को
क्षत विक्षित कर रहा है
बंदर सा मन लेकर
कभी शहर तो कभी जंगल में
नाच रहा है।
शांति की तलाश लिए
कस्तूरी मृग सा भटक रहा है।
जीवन अमूल्य है
पढ़ता भी है वेद पुराण में
पर कोड़ियों में लुटा रहा है।
क्या पा लेगा कोई
जीवन का दांव लगाकर
क्या खाएगा कोई
प्रकृति का नाश कर कर
सब उजड़ा सा है
पहाड़ , मैदान, नदी, नाले,
समंदर-पोरबंदर,
क्या चूसेगा ए मानव –
दीमक सा मन लेकर,
बस एक पागलपन सा है
मन के अंदर
पर मैं अब तक चुप हूं
एक उम्मीद लिए अपने बच्चे से
क्योंकि मैं एक मां हूं, कुदरत हूं,
पालनहार हूं…..(तुराज़)
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