जिंदगी पर कविता -2 : “Poetry on Life” (Hindi Poetry)

जिंदगी पर कविता -2 : “Poetry on Life” (Hindi Poetry)

जिंदगी पर कविता -2

“Poetry on Life

(Hindi Poetry)

 

ज़िंदगी, याद है तुझे
मेरा चले आना, सब बेइंतजाम था
कितना बेपरवाह था मैं
न रिश्तों का पता था
न अपने और बेगानों की खबर
न घर का पता था
न मंजिल की खबर
ज़िंदगी, याद है तुझे……

कुछ न लाया था मैं
न जीने और मरने का था डर
जिंदगी सांस ले रही थी
पल-पल संवर रही थी
मां बनकर तू ले रही थी खबर
जिंदगी, याद है तुझे……

मैं नंगा फकीर सा था
न खाने को था, न ढकने को था
न रहने का कोई इंतजाम था,
कोई न धर्म था, न रंग था
न जाति थी, न देश था
और ही कोई भेदभाव था
ज़िंदगी, याद है तुझे
मेरा चले आना सब बेइंतजाम था…..

न मन था
न ही कोई जुबां थी
कोई अच्छा भी न था
कुछ बुरा भी नहीं था
करें भी क्या?
कोई लक्ष्य ही नहीं था
बस! ज़िंदगी!
तू ही तो थी
कोई “मैं” नहीं था
ज़िंदगी! याद है तुझे
मेरा चले आना, सब बेइंतजाम था……

मुझे याद ही नहीं है मेरा होना
पर मैं था तो सही
तुझे ही पता है ये जिंदगी
पालने में पड़े पड़े, धीरे धीरे
जिंदगी बदल गई
और “मैं” हो गया
फिर सब “मेरा” हो गया
मुझे शर्म आ गई
मेरे कपड़े आ गए
जिंदगी! याद है तुझे
मेरा चले आना, सब बेइंतजाम था…..

फिर मुझे दिखने लगा
अच्छा-बुरा लगने लगा
जुबां में स्वाद आ गया
प्यार और गुस्सा आ गया
अपने-पराए आ गए
मेरा तेरा आ गया
जिंदगी! याद है तुझे
ये सब कैसे हो गया…….

पहले मैंने, मेरी “मां” कहा
फिर कुछ और, कुछ और
मैंने अपने खिलौने संभाले
फिर कुछ और, कुछ और
स्कूल में दोस्त-दुश्मन बने
कुछ अच्छे कुछ बुरे मिले
फिर किताबी ज्ञान लिया
सब कागज इकट्ठे किए
मेरी आवाज बदल गई
चेहरा और शरीर बदल गया
समझ बड़ी, दुनिया के इंतजाम किए
जिंदगी! याद है तुझे
मेरा चले आना, सब बेइंतजाम था……

जो चाहा, खोजा और पाया
जो नहीं पाया, रोया और पछताया
सब अपना-अपना बनाया
वाही-वाही लूटी, गुस्सा भी दिखाया
पुराने सब भूलते गए
नए सब बनते गए
कुछ आते गए, कुछ जाते गए

अब धीरे धीरे जिंदगी!
तू वापस सी सरक रही है
दांत गिर रहे हैं मेरे
आंखें धुमिल होने लगी हैं
याद जाने लगी है
कपड़े तन से बहने लगे हैं
चमड़ी लटकने लगी है
कान में अब आवाज नहीं पड़ती
जुबान लड़खड़ाने लगी है
जिंदगी! तू अब वापस जाने लगी है

अब बता!
मेरा क्या था पता?
मैं क्यों आया था?
मैं पहले भी नहीं था
अब फिर नहीं रहूंगा
तो मैं इन दिनों में क्यों था?
ज़िंदगी! तू बता मैं कौन था?
जो बेजुबान था
जिंदगी! याद है तुझे
मैं जब आया था, सब बेइंतजाम था।

फिर मैं बेइंतजाम ही जा रहा हूं
तो ये सब जिंदगी में
इतना मेरा इंतजाम क्यों था
शायद! जिंदगी, ये तेरा नहीं
“मेरा” और “मैं” का इंतजाम था
पर ये झूठ था
ये यहीं था, यहीं रह गया
मैंने किया, बस!
ये दाग मेरे साथ है…….
जिंदगी!
तू तब भी थी, अब भी है
तेरा आना भी बेइंतजाम था
तेरा जाना भी बेइंतजाम है…..
“तुराज़”……✍️

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"प्रेम" मुक्त-आकाश में उड़ती सुगंध की तरह होता है उसे किसी चार-दिवारी में कैद नहीं किया जा सकता। ~ तुराज़

2 comments

  1. Turaaz says:

    Dear Reader your warmth and prompt response gives me strength and immense pleasure to write better than today
    Regards with thanks ❤️❤️🙏🙏