प्यार की पकड़ : “Hold of Love” ( Hindi Poetry)

प्यार की पकड़ : “Hold of Love” ( Hindi Poetry)

प्यार की पकड़

“Hold of Love”

(Hindi Poetry)
शुरुआत प्यार की
ऐसे ही होती है
कुछ भी भा जाता है
मन को।
फिर जगती है
पाने की इच्छा
मैं और मेरे-पन की इच्छा,
तब भी ठीक है गर
प्यार है सच्चा
पर होता कब है ऐसा ?
माँ का प्यार
इस जगत में, माना जाता है
सबसे सच्चा
उसमें भी “मेरा” तो
आ ही जाता है-
“किसका है वह बच्चा” ?
कब किसने सोचा
कैसे आया गर्भ में
पता ही नही !
न जन्म हाथ में
न मरण हाथ में
फिर मेरे का दावा कैसा !
गर ये बात
चित्त में रुक जाय
कि ये उपहार भी है
जिम्मेवारी भी,
उस कुदरत ने दी है हमको
लालन-पालन की
सौभाग्य है ये माँ बनने का
न कि ” मैं और मेरा “
बच्चा कहने का।
पकड़ प्यार की
उठती है ऐसी
जो मोह-माया बन जाती है
सब मेरा-मेरा सा
लगने लगता है,
फिर बच्चे का
बचता ही क्या है
माँ-बाप उसे दौड़ाते हैं
अपनी चाहत मनवाते हैं
पूरी हो भी जाय तो
क्षण भर खुशी, न हो
तो मण भर दुखी
बस ऐसे ही  “तुराज़” ,
प्यार, मोह में जकड़ जाता है
उपहार प्रभु का मिलकर भी
बन्दा खाली-खाली
हाथ मलता ही  रह जाता है
प्यार जो मुक्तिदायी है
 वही पकड़ बन जाता है
प्यार पकड़ ही  बन जाता है।
                                        तुराज़….✍️
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"प्रेम" मुक्त-आकाश में उड़ती सुगंध की तरह होता है उसे किसी चार-दिवारी में कैद नहीं किया जा सकता। ~ तुराज़