अंतिम याचना
“Final Call”
(Hindi Poetry)
मैं तो अब,
तेरे ही रथ में बैठा हूं
क्या सही है, क्या गलत
इसका मुझको कोई इल्म नहीं
तू जहां भी हाँक ले,
अपने रथ को
मुझको तो चलना ही होगा
कठिन डगर है,
इस भव-सागर की,
मैंने अपने मन के
सारे घोड़े दौड़ाए,
क्षत-विक्षिप्त सा
पड़ा हूं अब मैं
तू ही अब मेरी
नैय्या पार लगाए
मैं तो अब, तेरे ही रथ में बैठा हूं
उपदेश तो मैंने बहुत सुने हैं
मन की चालों से कौन बचाए,
जो भी संयम-नियम बने हैं
मैंने तो सारे ही अपनाए,
उन सब की अब ऐसी
लत लग गई है
उनसे मुझको अब कौन छुड़ाए,
अब आस, तुझ ही से है मेरी
मैं तो अब, तेरे ही रथ में बैठा हूं
मां-बाप, भाई-बहिन, रिश्ते-नाते,
घर-परिवार-कुटुंब, यार-दोस्त-मित्र
सगे-संबंधी, कुछ जन्म से मिले,
कुछ मैंने अपने से बनाए
अब इनसे बंटी हुई,
ये रस्सी का फंदा
मेरे गले के निकट
आता ही जाता है,
तू रख ले लाज मेरी अब
मैं तो अब, तेरे ही रथ में बैठा हूं
ऊब चुका हूं मैं, तेरी दुनिया से
यक्ष-प्रश्न यही है अब तुमसे
क्यों तुमने मुझको भेजा होगा ?
न कारण पता, न कर्म मुझको
पशुवत ही मैंने ये सब भोगा होगा
अब अधर में गिर पड़ा हूं
विवेक-शुन्य हूं,
कैसे मेरा निस्तारण होगा
नहीं पता कुछ भी अब मुझको
मैं तो अब तेरे ही रथ में बैठा हूं।
कुछ भी मिला नहीं
मैंने सब खोया ही खोया है,
जिसको भी मैंने अपना समझा
उससे बेहद धोखा पाया है,
हड्डी-तोड़ मेहनत की थी मैंने
कि धन-धान्य और
अपनों से सुख भोगुंगा,
शरीर जीर्ण-शीर्ण हुआ,
रिश्ते-नाते-परिवार गया
अब अपनी ही काया
भारी है मुझ पर,
दुख बहुत है मन में भी
कि मैंने जीवन सब बर्बाद किया,
किस मुख से फिर
आंख उठाऊं, तुझ ऊपर,
अहम-विहीन का आश्वासन लेकर
मैं अब, तेरे ही रथ में बैठा हूं
इतनी आशा, अब भी है तुझसे
कि तू करुणा-निधान है,
मुझे छोड़ नहीं जायेगा
इसी आशा से मैं अब
तेरे ही रथ में बैठा हूं।
तुराज़…..✍️