बुद्ध की एक कहानी
“Buddha Story”
(Story Special)
बुद्ध कहते थे कि एक अंधा व्यक्ति था। जन्मांध अंधा, जो कभी एक कदम भी चल कर नहीं जा सकता था । लोग उस पर तरस खाते और कोई उसकी मजाक भी बनाता और कोई उसकी इस हालत से डरता भी था।
एक दिन उधर से एक लंगड़ा व्यक्ति गुजर रहा था। दर्द से कराहता हुआ, चीखता हुआ, अपनी इस हालत पर उसको दुख होता। खिन्नता होती थी। उसकी नजर इस अंधे व्यक्ति पर पड़ी जो बहुत दुखी, लाचार हालत में बैठा हुआ था। उसके मुंह, नाक पर मक्खी लगी हुई थी, कपड़े मैले कुचैले लेकिन उसको जैसे अपनी होश ही न हो।
यह लंगड़ा व्यक्ति उसके नजदीक गया और उसको पूछा कि तुम्हें क्या हुआ है? उसने कहा कि मैं जन्मांध अंधा हूं इसलिए लाचार हूं। चल फिर भी नहीं सकता। लंगड़े व्यक्ति ने तुरंत उसके पांवों को छुआ और कहा कि क्या तुम्हारे दोनों पांव ठीक हैं ? अंधे ने कहा कि हां मेरे दोनों पांव ठीक हैं।
लंगड़े को एक विचार सूझा कि क्यों न मैं इसके कंधे पर बैठ जाऊं ताकि यह पावों से चलता रहेगा और मैं इसको रास्ता बताता रहूंगा। इससे हम दोनों ही घूम फिर सकते हैं अपनी गुजर बसर कर सकते हैं। उसने यह विचार अंधे को बताया और अंधा राजी हो गया, खुश हो गया कि अब मैं भी बेफिक्र चल सकता हूं।
इस तरह दोनों की रजा बंदी हो गई और दोनों एक दूसरे के सहारे जीवन यापन करने लगे। दोनों ही बहुत खुश थे और उनका पूरा जीवन ही बदल गया था।
बुद्ध कहते थे कि यह अंधा और लंगड़ा आदमी अमर हो गए कभी नहीं मरे और यह पूरी सृष्टि इनकी ही बनाई हुई है। यह अंधा और लंगड़ा आदमी मनुष्य का मन और उसका शरीर हैं। यह दोनों ही एक दूसरे के बिना कुछ भी नहीं कर सकते मगर जब यह दोनों ने एक दूसरे से हाथ मिला लिया साथ साथ जीने मरने की कसम खा ली तब यह संसार का निर्माण करते हैं। घर बनाते हैं, बच्चे बनाते हैं, परिवार बनाते हैं। व्यापार करते हैं। शासन चलाते हैं। मगर इनमें से अकेला कुछ भी नहीं कर सकता। यह एक दूसरे के पूरक हैं।
मन के बिना शरीर मृतक के समान है और शरीर के बिना मन कहीं प्रदर्शित नहीं हो सकता। कुछ कार्य नहीं कर सकता। शरीर इसकी अनिवार्यता है।