जिंदगी में एक अच्छे इंसान का मिल जाना
ऐसा ही होता है जैसे एक आईने का मिल जाना, जिसके आगे खड़े होकर हम अपने प्रतिबिंब को हर दृष्टि-कोण से देखते हैं और ठीक करने की कोशिश करते हैं।
मगर विडंबना यह है कि हम उस इंसान की अच्छाई या बुराई को उतना ही देख और समझ पाते हैं जितनी हमारी सोच और समझ का दायरा होता है
जबकि वह व्यक्ति अपने आप में पूर्ण(complete)
होता है। उसमें दिख रही अच्छाई या बुराई उसमें नहीं है बल्कि हमारे मन को क्या अच्छा लगता है और क्या बुरा, यह उसमें प्रतिबिंबित होता है।
यही वजह है कि हमने ज्ञानी-जनों, गुरू-जनों और अवतारों को आईना कह कर संबोधित किया जिनमें हमें अपनी ही छवि – “सदगुण और दुर्गुण” दिखाई देने लगते हैं, यहीं से आत्म-ज्ञान की शुरुआत होती है।
तुराज़….. ✍❤
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