तुराज़ की शायरी -09
“Turaaz ki Shayari”
(Hindi Poetry)
दुनियां को समझना तो दूर रहा
खुद को समझना भी आसान कहां
बेकार की कोशिश है यहां पैर जमाना
कौन है ऐसा ! जो नहीं है मेहमान यहां
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मैं दीप आरती का हूं
अभी हूं, अभी बुझ जाऊंगा
जाते जाते भी, अंधेरे और बुझे से
दिलों की खबर
सूरज को देकर जाऊंगा
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असंतोष बहुत है और व्यथा घनी है
हर घर में अब, बहुत तनातनी है
तब आंगन में सारा नभ था
आज छोटी छोटी सी बालकनी है ।
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बर्तनों की वही है आवाजें
वही है टकराहट,
मेरे घर जैसे ही हैं
शायद घर सारे
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अब तो नयों को
चीथड़ा बना कर पहनते हैं लोग
मिलते भी हैं तो
सिकुड़ कर मिलते हैं लोग…
पहले चिथड़ों में भी वो गजब के थे
जब कभी मिलना हुआ
दिल से मिले थे वो लोग
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तुराज़…..✍️