तुराज़ की शायरी -4 “Turaaz ki Shayari” (Hindi Poetry)

तुराज़ की शायरी -4 “Turaaz ki Shayari” (Hindi Poetry)

तुराज़ की शायरी -4

“Turaaz ki Shayari”

(Hindi Poetry)

मैं
सोचता हूं रोज उठकर
कि मैं सोकर
कहां चला जाता हूं।
मैं
उठता हूं, फिर निकल
पड़ता हूं, दुनियां में
भूल जाता हूं कि
मैं कहां चला जाता हूं।
मैं
फिर आकर,वक्त बिताकर
गुज़र जाता हूं, पर
कौन जाने मैं
कहां चला जाता हूं।

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वह नहीं थे
उन दिनों में मेरे
जिन दिनों में
मेरी उनसे पहली
मुलाकात हुई थी….
वह आज भी
उतने ही दूर हैं
और करीब भी।

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जी तो करता है
यूं ही देखता रहूं तुम्हें,
पर मुझे तुम सा
बन जाने में भी डर है।
नहीं लुटा सकता हूं
“मैं” हस्ती अपनी,
न ही किसी की खुशी में
मरने का शौक है मुझे।
हां मैं दुख में हूं,
अपने ही अहम के खातिर,
पर मुझे तुम सा
बन जाने में भी डर है।

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तुराज़…..✍🏿

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"प्रेम" मुक्त-आकाश में उड़ती सुगंध की तरह होता है उसे किसी चार-दिवारी में कैद नहीं किया जा सकता। ~ तुराज़