“दमकता अंगारा (Sparkling Ember)”
(Hindi Poetry)
“वक्त का दिया जलाये चल संसार की हवा से बचाये चल तेरी ही रोशनी से तू बढ़ेगा कदम“
अँगारे उमंग के
शायद दब से गये हैं राख में
अब वो आँच
महसूस ही नहीं होती
हवा के झोंके
रुक से गये हैं शायद
न राख उड़ती
न लपट उठती
गुजर भी जाये
बगल से कोई गर
उसकी महक
महसूस ही नहीं होती
वक्त के मानिंद
बदल तो जाता ही है सब
दाँत और बालों के बाद भी
उम्र जाती महसूस ही नहीं होती
क्या फर्क पड़ता है
मौसम को
दुख-सुख से तुम्हारे
खेल तो चलता ही है पर
न वक्त रुकता
न देह रुकती
फूकता रह इन
दबे अंगारों को “तूराज़”
राख की मोटी परत
बुझा न दे कहीं
न बैठ हाथ में हाथ धर
न कोई आया कभी
न आएगा, तेरे खातिर
तेरी ही आग
तेरे ही अंदर है
सुलगा तो सही
देखेंगे लोग कभी
अटारी पर चढ़-चढ़ कर
जब दमकेगा अंगारा
शोला बनकर
~ तूराज़