जिंदगी पर कविता -4, Poetry on Life (Hindi Poetry)

जिंदगी पर कविता -4, Poetry on Life (Hindi Poetry)

जिंदगी पर कविता -4

(Hindi Poetry)

निरुत्तर हूं और निशब्द भी
जीवन को जीकर ही जानी
मैंने जीवन की परिभाषा

बहता नीर निर्मल सा जैसे
दुग्ध – स्फटिक धारा हिम चोटी से
डग पर पग पड़ते हैं
ज्यों नन्हे – नन्हे से
जीवन बड़ता ही जाता
नदी – नाला सा जीवन
कब समुंदर सा भयावह बन जाता है!
निरुत्तर हूं और निशब्द भी
जीवन को जीकर ही जानी
मैंने जीवन की परिभाषा।

मूक बधिर सा, नन्हा सा था मैं
चमकती आंखें टिम टिम करती
अज्ञान से भरा मन, स्तब्ध सा था
और अचरज भारी
न मां बाप की समझ, न अपनों की
और न ही खबर अपने होने की
पर निरुत्तर हूं, और निशब्द भी
जीवन को जीकर ही जानी
मैंने जीवन की परिभाषा।

बचपन में उठते थे सपने
मैं कभी बनता था राजा-रानी
और कभी परियों के संग
नीले नीले अम्बर में उड़ता था
उल्लास बहुत था जिसको
जवानी निगल गई
सपने बुने,
तन मन की ताकत झोंकी
कुछ पाया, कुछ खोया भी
अब उन अच्छी यादों पर
कभी हंसता भी हूं
और बेवकूफी और बर्बादी पर
रोता भी हूं।
पर निरुत्तर हूं और निशब्द भी
जीवन को जीकर ही जानी
मैंने जीवन की परिभाषा

सब शिथिल हुआ अब
जर्जर काया, सर पर कंपन
हाथ में लाठी,
कदम कदम चलना
लगता है मीलों सा
ज्यों पंख लगे, उड़ गए परिंदे
नीड़ बचा है खाली खाली
कभी आवाज में गर्जन थी, कंपन थी
लोग आते जाते थे,
जो कहा, कर जाते थे
आज अनसुना
और अनदेखा कर जाते हैं
अब इंतजार मैं हूं, अपनी
काया के मर जाने का
और निरुत्तर हूं
और निशब्द भी
जीवन सबका अपना – अपना है
मैंने तो जीवन को
जीकर ही जानी अपने
जीवन की परिभाषा।
कुछ नहीं है, बस
बहता – बहता पानी सा
तुराज़…….

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"प्रेम" मुक्त-आकाश में उड़ती सुगंध की तरह होता है उसे किसी चार-दिवारी में कैद नहीं किया जा सकता। ~ तुराज़

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