“मैं”को खोजता हूं मैं
I am Searching “I”
(Hindi Poetry)
मेरे मैं की पीढ़ा असहनीय है
पर खाज का सा सुख उसका प्रारंभ है
जैसे प्रसव की पीढ़ा खो सी जाती है नवजात का चेहरा देखकर
ऐसे ही दबा हुआ मेरा मैं
समंदर सा छलकता है हिलोरें मारकर
आंसुओं का नमक विकृत कर देता है चेहरा मेरा
फिर शृंगार कर लेता है मेरा मैं, नए सपने देखकर
अस्तित्व की कोई नींव नहीं है “मैं” की
फिर भी मंजिल दर मंजिल बना लेता है ये संजोकर
मेरे मैं की पीढ़ा असहनीय है.…..
एक दिन मेरे मुर्शिद के तेज से
निष्प्राण हो गया था मेरा मैं
उसी दिन मैंने चमकता हुआ उगता हुआ सूरज देखा
पल भर के लिए ही सही , रौशनी में अपना चेहरा देखा
एक आस की किरण कौंधी थी प्राणों में मेरे
कि तुम मुर्दा नहीं हो बिना “मैं” के
फिर ग्रहण सा लग गया छा गया अंधेरा
जहां अब मेरा असली वजूद नहीं दिखता
मैं झूठ को ही सच समझ रहा था अब तक
उसी में जिया उसी में मरा हूं अब तक
“मैं” ही मरा “मैं” ही जिया
यह सिलसिला युगों से चलता रहा
“मैं” की चक्कती में मैं सदा लिपटा ही रहा
मेरे मैं की पीढ़ा असहनीय है……