बूढ़े मन की पीड़ा “Agony of a Older Brain” (Hindi Poetry)

बूढ़े मन की पीड़ा “Agony of a Older Brain” (Hindi Poetry)

बूढ़े मन की पीड़ा

“Agony of a Older Brain”

(Hindi Poetry)

विरह बड़ी है
तट पर हूं आज
क्षत विक्षत पड़ा मैं
भव-सागर की लहरों से आहत,

बहुत गोते मारे थे मैंने
संसार-सागर के अंदर
मोतियों की आश लिए,

कुछ पकड़े भी थे मोती मैंने
सागर से बाहर आने तक
फिसल गए मुट्ठी से मेरे

अब जर्जर हुआ ये तन-मन
लड़ता है मुझसे
व्यर्थ हुआ जीवन,

रोगों का अंबार लगा अब
भूख और प्यास
मर चुकी सब

प्राण रुका है कंठ में,
कांटा सा चुभता
शायद एक यक्ष प्रश्न लिए –

क्या था जीवन?
क्यों था जीवन?
कौन और कहां से था मैं?

कौन थे मेरे वो,
जो अपने बनकर आए थे
और कहां चले गए?
अब कहां को जाना है?

जब जीवन
ऐसा रहस्यमय था
तो मौत कितनी भयावह होगी?

मैं डरता भी हूं अब
मृत्यु सय्या पर पड़े-पड़े,
यम की राह तके …. तुराज़..

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"प्रेम" मुक्त-आकाश में उड़ती सुगंध की तरह होता है उसे किसी चार-दिवारी में कैद नहीं किया जा सकता। ~ तुराज़

2 comments

  1. Turaaz says:

    Thanks a lot!
    Your valuable feedback on this gives me a booster for my upcoming work.
    Thankyou❤️❤️🙏